कुछ नेताओं द्वारा अपनी सियासी रोटियां सेंकने के लिए सरकार के प्रत्येक फैसले के खिलाफ जहर उगलना और उसे संविधान विरोधी बता कर बखेड़ा खड़ा करने को जनता समझती है और इतिहास गवाह है कि ऐसे नेताओं का राजनीतिक हिसाब जनता ने पूरी शिद्दत के साथ किया भी है।
46 साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने 'केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य' मामले में जो फैसला सुनाया था उससे तत्कालीन इंदिरा सरकार की चूलें हिल गईं थीं। देश के इतिहास में यह पहला और आखिरी मौका था जब किसी मामले की सुनवाई के लिए 13 जजों की पीठ का गठन किया गया। इस पीठ ने अक्टूबर 1972 और मार्च 1973 के बीच लगभग 70 दिनों तक इस मामले की सुनवाई की। सैंकड़ों नजीरों और 71 देशों के संविधानों का अध्ययन करने के बाद इस पीठ ने 24 अप्रैल 1973 को कुल 703 पन्नों का फैसला सुनाया। यह फैसला क्या था और इतनी बड़ी पीठ के गठन की जरूरत ही क्यों पड़ी थी, इसे समझने के लिए उस वक्त के राजनीतिक माहौल को समझना बेहद जरूरी है।
करीब 70 दिनों की बहस के बाद 24 अप्रैल 1973 को कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया। यह फैसला 7−6 के न्यूनतम अंतर से दिया गया। यानी सात जजों ने पक्ष में फैसला दिया और छह जजों ने विपक्ष में। इस फैसले में छह के मुकाबले सात के बहुमत से जजों ने गोलकनाथ मामले के फैसले को पलट दिया यानी अब न्यायालय ने माना कि संसद मौलिक अधिकारों में भी संशोधन कर तो सकती है, लेकिन ऐसा कोई संशोधन वह नहीं कर सकती जिससे संविधान के मूलभूत ढांचे (बेसिक स्ट्रक्चर) में कोई परिवर्तन होता हो या उसका मूल स्वरूप बदलता हो।